Lekhika Ranchi

Add To collaction

राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


ग्रामीणा सुभद्रा कुमारी चौहान


पंडित रामधन तिवारी को परमात्मा ने बहुत धन-संपत्ति दी थी, किंतु संतान के बिना उनका घर सूना था। धन धान्य से भरा पूरा घर उन्हें जंगल की तरह जान पड़ता। संतान की लालसा में उन्होंने न जानें कितने जप-तप एवं विधान करवाए और अंत में उनकी ढलती उम्र में पुत्र तो नहीं, किंतु एक पुत्री का जन्म अवश्य हुआ। तिवारी जी ने खूब खुले हाथ से खर्च किया। सारे गाँव को प्रीतिभाज दिया गया। महीनों घर में डोलक ठनकती रही। कन्या ही सही पर इसके जन्म से तिवारी के निःसंतान होने का कलंक धुल गया। कन्या का रंग गोरा - चिट्टा, आँखें बड़ी-बड़ी, चौड़ा माथा और सुंदर-सी नासिका थी। उसका नाम रखा गया सोना। सोना का लालन-पालन बड़े लाड-प्यार से होने लगा।

सोना के सात साल की होने पर तिवारी जी ने घर में एक मास्टर लगाकर सोना को हिंदी पढ़वाना आरंभ किया। सोना ने थोड़े ही समय में रामायण महाभारत पढ़ना आरंभ कर दिया। ज़्यादा पढ़ाकर उन्हें सोना से कोई नौकरी तो करवानी नहीं थी, इसलिए सोना का पढ़ना बंद करवा दिया गया।
अब सोना नौ वर्ष की सुकुमार सुंदर बालिका थी। उसकी सुंदरता और सुकुमारता को देखकर गाँव के लोग कहते, ''तिवारी जी। आपकी बेटी देहात के लायक नहीं है। इसका विवाह तो कहीं शहर में ही करना। सुनते हैं, शहर में बड़ा आराम होता हैं।"

तिवारी जी की बहिन जानकी का विवाह तो गाँव में ही हुआ था, किंतु इधर कुछ समय से वह शहर में जाकर रहने लगी थी। जब कभी वह शहर से चौड़े किनारे की साड़ी, आधी बाँह का लेस लगा जाकेट, पैरों में काले-काले स्‍लीपर पहनकर आती तो सारे गाँव की स्त्रियाँ दौड़-दौड़कर उसे देखने आतीं। जानकी के पति नारायण ने मिल में नौकरी कर ली थी। उसे बीस रुपए माहवार मिलते थे। अब वह देहाती न था। सोलह आने का शहरी बाबू बन गया था। जब कभी गाँव में जाता कान में इत्र का फाहा ज़रूर रखता। गाँव वालों को अपने जीवन से शहर का जीवन ही सुखमय और शांतिदायक मालूम होता।

इन सब बातों को देखकर और सोना की सुकुमारता को देखते हुए सोना की माँ नंदो ने निश्चय कर लिया था कि मैं अपनी सोना का विवाह शहर में ही करूंगी, किंतु सोना को कुछ ज्ञान नहीं था; वह तो अपने देहाती जीवन में ही मस्त थी। वह दिन-भर स्वच्छंद फिरा करती। कभी-कभी वह समय पर खाना खाने आ जाती और कभी-कभी खेल में खाना भी भूल जाती। सुंदर चीज़ें इकट्ठी करने और उन्हें देखने का उसे व्यसन-सा था। गाँव में उसे अपने जोड़ की कोई लड़की न मिलती। इसीलिए किसी लड़की से उसका अधिक मेल जोल न था। नंदो को सोना की स्वच्छंद-प्रियता पसंद न थी, किंतु वह सोना को दबा भी न सकती थी। जब कभी वह सोना को इसके लिए कुछ कहती तो तिवारी जी, उसे आड़े हाथों लेते। कहते, लड़की है, पराए घर तो उसे जाना ही पड़ेगा, क्‍यों उसके पीछे पड़ी रहती हो? जितने दिन हैं खेल लेने दो। तुम्हारे घर जन्म-भर थोड़े बनी रहेगी।
लाचार नंदो चुप रह जाती। सोना ने तेरहवें साल में पैर रखा, किंतु तिवारी जी का ध्यान इस तरफ़ था ही नहीं। एक दिन नंदो ने उन्हें छेड़ा, “सोना के विवाह की भी कुछ फिकर है?” तिवारी जी चौंक से उठे, बोले, “सोना का विवाह? अभी वह है कै साल की?''
किंतु यह कितने दिन चल सकता था? लड़की का विवाह तो करना ही पड़ता है। इधर सोना अभी भी निरी बालिका ही थी। वह राजा-रानी का खेल खेलती। अब उसके अंग-प्रत्यंग में धीरे-धीरे यौवन का प्रवेश हो रहा था, किंतु सोना को इसका ज्ञान नहीं था।

   1
0 Comments